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Friday, 13 September 2019

चाहती हो ~अनुष्का पाठक

उठ कर ,बैठ कर, चल कर किसी तरह से तुमने बड़ी मुश्किल से रात गुज़ारी है..है ना? जाना चाहती हो कहीं ...ठीक है ,चली जाना मगर ये बता के कि जाओगी कहाँ ?
वो क्या है ना ..रास्ते में कुछ गड्ढ़े होंगे , 4 लोगों की बातें भी होंगी ..होंगी ना? , बस इन्ही से बचाना चाहता हूँ..
... हाँ मैं जानता हूँ कि तुम तुम हो तुम्हे इन सबसे फ़र्क़ नही पड़ता . तुम अपने हाथों में अपनी मनपसंद किताब लिए रहना चाहती हो , अपने हाथों से दुनिया लिखना चाहती हो.. उसके बाद कौंन है ? क्या है ? क्यों है ? क्या मतलब.. तुम हो न ये तुम्हारी किताब है ना तो बस सब कुछ तो है.. .....
सूनी सुबह में उठी हो , जानता हूँ ये भी आदत है तुम्हारी… है ना? कुछ देर बेबाक खुले आसमाँ को देखना फिर अपनी ओर देखना , फिर आसमान की ओर उड़ते हुए पंछियों को और फिर चल देना बिना सोचे हुए की किस तरह उठ कर , बैठ कर ,चल कर  तुमने कितनी मुश्किल से रात गुज़ारी थी.. ....
लेकिन हाँ शामों को उजाड़ कर मत आना ...जिस तरह पूरे मन से हाथों में अपनी मन पसन्द किताब लिए गयी थी उसी तरह आना क्योंकि एक कप चाय तुम्हारा इतंज़ार कर रही है...

~ अनुष्का पाठक




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